आज तो जन्मदिन है...मंदिर गई होगी सुबह ? ऑफिस में किसी ने पूछा. ना में जवाब दिया तो सुझाव आया कि घर लौटते समय चले जाना. जब मैंने जनाब को बताया कि मैं मंदिर जाती ही नहीं तो वो बोले: "तो आप नास्तिक हैं ?
मैंने हंसकर जवाब दिया: “नहीं, बस मंदिर जाना छोड़ दिया.”
भाईसाहब ने उत्सुक होकर पूछा: “ऐसा क्यों ?”
बात जल्दी निपटाने के लिए मैंने कहा: “जब तक चीज़ों के बारे में पता नहीं था, जाती थी...अब नहीं जाती...धर्म ने औरतों का कौनसा भला किया है”.
“हां, बात तो सही है आपकी...” ऐसा कहकर भाईसाहब वापिस काम में जुट गए. दरअसल, ये जनाब भी मेरी तरह पॉलिटिकल साइंस यानी राजनीति विज्ञान की पढ़ाई कर चुके हैं और सामाजिक मुद्दों की अच्छी समझ रखते हैं.
बहरहाल, पूरा दिन काम में बीता...पूजा तो छोड़िए, प्रार्थना करने का ख़्याल भी मन में नहीं आया. लौटते वक़्त किसी ने यही सवाल दोहराया. मेरा जवाब सुनकर हैरानी से बोले: “भगवान से लड़ाई है क्या ?”
मैंने भी उतनी ही हैरानी से जवाब दिया: ”भगवान मंदिर में रहते हैं क्या ?”
वो मुस्कुराने लगे तो मैंने कहा...मेरी सोच कुछ अलग है इस मामले में. घर पहुंचकर मन में ख़्याल आया कि क्या सभी मानकर बैठे हैं कि भगवान मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघरों में मिलेंगे ?
इससे बड़ा छलावा तो कोई हो ही नहीं सकता...जो चीज़ ईश्वर ने बनाई ही नहीं उसमें भला वो क्यों रहने लगे. लोगों ने अपने प्रचार-प्रसार के लिए मंदिर बनवा दिए तो भ्रम होने लगा कि भगवान से मिलने का सबसे सही स्थान यही है. वैसे, शुरुआत शायद ऐसी नहीं रही होगी. इन जगहों का निर्माण शायद प्रेरित करने के लिए हुआ होगा कि घर पर न सही, बाहर ही हम विनम्रता और दया का भाव जागृत करें. पर ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं...वेद-पुराण पढ़कर भी कुछ हासिल नहीं हुआ. जैसे-जैसे आदमी की इच्छाएं पूरी होती गई, लालच भी बढ़ता गया. उपलब्धियों से उसकी आस्था बढ़ती गई और उसे यक़ीन हो गया कि वो सही रास्ते पर है. जिसे असफलता का सामना करना पड़ा, वो या तो ऊपरवाले से विरक्त हो गया, या कर्म-कांडों में फंस गया. फिर दोष दिया क़िस्मत को. भक्ति के छलावे में ख़ुद पर भरोसा ही नहीं रहा. कहा परमात्मा मुझसे नाराज़ है...इसलिए मुझे अभाव में रखा. ऐसा क्या करूं कि घर, गाड़ी के सपने सच हो जाएं...उपवास से ही काम बन जाए...अगर ये हो जाए तो 251 रुपए का प्रसाद चढ़ा दूं...सुना है उस मंदिर में चादर चढ़ाने से हर मन्नत पूरी होती है.
कहीं काम नहीं बना तो कीर्तन-जगरातों में जाना शुरु कर दिया...देवी मां शायद ख़ुश हो जाए...हलवा-पूरी सब बाटूंगी एक बार, बस एक बार मेरी मुरादें पूरी हो जाएं... कुछ नहीं हुआ...अब क्या करुं, कहां जाउं...घर पर मन विचलित होता है...मंदिर चली जाती हूं...वहा मन शांत हो जाएगा...
लेकिन घर आते ही वही माहौल...उफ्फ! इससे तो मंदिर ही अच्छा... बस मैं और मेरे राम...घर पर क्या हो रहा है कुछ पता ही नहीं...मंदिर के नाम पर जो छलावा गले लगाया उसने इतना निर्भर बना दिया कि भगवान का सिखाया हुआ प्रेम और निरबैरता का पाठ घर आने तक भूल गए. धीरे-धीरे हमने मंदिर को आकांक्षाएं और शिकायतें गिनाने का आरामगृह बना लिया. आज मंदिरों के नाम पर बड़े-बड़े महल खड़े हैं... इतना धन अगर बेघर लोगों पर ख़र्च किया जाए तो किसी को फुटपाथ पर न सोना पड़े.
कई मंदिरों में भगवान के दर्शन की रेट लिस्ट लगी होती है...जितना बड़ा रुतबा, उतनी बड़ी रसीद कटवा लें...सुना है कई मंदिरों में भगवान के दर्शन के लिए वीआईपी गेट भी होते हैं...जो पीछे से जाते हैं...गांव में इसे चोर रास्ता कहते हैं.
अब भला भगवान को पैसों की क्या ज़रुरत...अब तो यक़ीन हो गया... भगवान मंदिर में नहीं मिलने वाले... जहां दर्ज़े के हिसाब से दर्शन होते हों, वहां तो बिल्कुल भी नहीं...
चलो, घर पर ही मंदिर बनाकर रोज़ पूजा कर ली जाए. मग़र ये क्या जिस दिन दीपक न जला पाई, ख़ुद को कोसने लगी...अरे भई, भगवान नाराज़ नहीं होने वाले...उनके पास और भी काम हैं...न तो वो तुम्हारी तरह लालची हैं और न ही किसी बहकावे में आने वाले... 251 रुपए में ख़रीदने चली थीं!
जैसा हमारा मन, हमारा ईश्वर बिल्कुल वैसा ही है...मन निर्मल तो ईश्वर निर्मल, यदि मन मैला तो ईश्वर को मैला होने में वक़्त नहीं लगेगा...यही सत्य है और सत्य ही ईश्वर है...कर्म, वाणी और विचारों में शुद्धता लाएं तो ईश्वर सदा मन में बसेंगे...रही बात मेरी तो मेरे कमरे में कोई तस्वीर या मूर्ति नहीं है. हां, मन में सिर्फ़ अच्छे विचार हैं...इसलिए आस्था के बावजूद मंदिर में आना-जाना बंद है...उपवास रखने से बेहतर समझती हूं दूसरों को खाना खिलाया जाए. मंदिर जाने में बुराई नहीं लेकिन उसे वास्तविकता से पलायन का ज़रिया न बना लें...ख़ुश रहे, ख़ुश रखें....
2 comments:
आपकी सोच बिलकुल मेरी तरह है. मैं भी मंदिर आदि जाने से बहुत कतराता हूँ. इसका बड़ा कारण यही है कि मैं मंदिरों से जुड़ी कुरीतियों और कुव्यवस्थाओं को सहन नहीं कर पाता. पर कुछ समय से मुझे आस्था की भी कमी आई है. दुनिया में बहुत कुछ बुरा और अनीतिपूर्ण होते देखते रहने के बाद भी एक परोपकारी और हितकारी ईश्वर के होने की मान्यता को मैं स्वीकार नहीं पाता. बुरी घटनाओं के लिए बहुतेरी व्याख्याएं दी जा सकतीं हैं पर यदि हम यह मानते हैं कि हर घटना में ईश्वर की इच्छा छुपी होती है तो ईश्वर के पालनहार होने ही संकल्पना ध्वस्त हो जाती है.
जन्मदिन की विलंबित शुभकामनाएं.:)
Thankyou Nishant...मैं आपकी बात से सहमत हुं...आशा है आप Inner Voice पर visit करते रहेंगे...Cheers!
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