आज फिर से दिल करता है कि 5 साल पीछे चली जाउं...ऐसा क्या था 5 साल पहले जो अब नहीं है?
पांच साल पहले मैंनें मीडिया में क़दम रखा था. उस वक्त न सिर्फ मुझमें काम के प्रति ज़्यादा उत्साह था बल्कि ज़िंदगी में कामयाब होने की एक ललक थी...उस वक्त एक 'ज़िदंगी' ऑफिस के बाहर भी हुआ करती थी...मुझे याद नहीं कि कभी दफ्तर की कोई टेंशन मैं बाहर लेकर आई.
22 साल की उम्र में 'शादी' जैसा बड़ा फ़ैसला कर लिया था मैंने...पहली नौकरी और पहली रिलेशन्शिप....यह 'पंचनामा' इसलिए क्योंकि एक नई बॉलीवुड फिल्म ने मुझे कॉलेज के तुरंत बाद के दिनों की याद दिला दी...दिल्ली शहर में लाइफ कैसी है...जैसे हम हैं बिल्कुल वैसी. जब हम ख़ुश तो सारा शहर मानो जश्न मनाता हो...और जब हम ग़मज़दा तो जैसे हर कोई अपनी तन्हाई में डूबा हुआ. एक दूसरे का हाल पूछने की किसी को फुरसत ही नहीं. पांच साल में कई दोस्त बने, कई पुराने दोस्त छूट गए.
मग़र आज यह फिल्म देखकर एहसास हुआ कि ‘दोस्ती’ तो निभाई जा सकती है मग़र ‘रिलेशन्शिप्स’...बाप रे बाप...जैसे फिल्म के एक किरदार ने कहा: “Relationship means an end to your own happiness…” वाकई, उस उम्र में तो क्या किसी भी उम्र में रिश्ते निभाना “is a hell of a job”.
प्यार को समझने में ही एक उम्र निकल जाती है...जिसे हम प्यार समझ बैठते हैं वो अकसर एक ज़रुरत होती है...किसी ‘छलावे’ के पीछे हम अपना सब कुछ लुटा देते हैं और फिर कुछ हाथ न लगने पर या तो ख़ुदको कोसते हैं या सामने वाले को...वैसे ख़ुदको ज़िम्मेदार मानने वाले समझदार कम ही होंगे...अपनी बात करुं तो रिलेशन्शिप ख़त्म होने के कई साल तक मैं अपने आपको ही ज़िम्मेदार मानती रही...लेकिन सिर्फ रिलेशन्शिप ओवर होने का उसके असफल होने का नहीं. अलग होने का फ़ैसला मेरा था लेकिन रिश्ते की नाक़ामयाबी का ठीकरा मैंने उसके सर मढ़ दिया. “मुझे वो ख़ुश नहीं रख पाया...” यही सोचकर में आगे बढ़ गई. मगर इन 5 सालों में शादी के कई प्रस्तावों के बावजूद मैं ख़ुदको किसी से जोड़ नहीं सकी... शायद मैं आगे बढ़ ही नहीं पाई थी.
मैं बिना किसी रिलेशन्शिप के भी वैसी ही थी जैसे रिलेशन्शिप के दौरान...तब समझ में आया कि ख़ुदको ख़ुश रखने की ज़िम्मेदारी हमारी अपनी है...फिल्म में हीरो जब कहता है कि “इन लड़कियों को कोई ख़ुश नहीं रख सकता...” तब लगा कि अगर हर लड़का इसी मानसिकता से पीड़ित रहेगा तो न तो कभी ख़ुद ख़ुश रहेगा और न लड़की को ख़ुश रख सकेगा...एक बात है औरतें ‘ख़ुश करने’ की मंशा से कोई काम नहीं करती...वो बस वही करती हैं जो उन्हें सही लगता है.. हां मगर सही-गलत का फ़ैसला उनका अपना होता है...और सारी ‘प्रॉब्लम’ ही यहीं से शुरु होती हैं...
मुझे अपने अलग होने के फ़ैसले पर कोई अफसोस नहीं मगर दिल करता है कि एक बार फिर 22 की हो जाउं और 'ज़िदंगी' फिर से शुरु करुं...इस बार किसी छलावे में नहीं बल्कि होश और समता में जीवन को सही ढंग से जीने के लिए...